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नमस्कार भक्तगण, The Divine Energy में आपका स्वागत है। महाभारत की एक घटना में महादेव का किरात अवतार हुआ, जिसमें उन्होंने अपने भक्त, नर श्रेष्ठ अर्जुन की ‘मूक’ नामक दैत्य से रक्षा की और उनसे युद्ध-लीला में प्रसन्न होकर अपना अमोघ पाशुपतास्त्र प्रदान किया । भगवान के इस अवतार की रोचक कथा इस प्रकार है | उस समय पाण्डवों का वनवास-काल चल रहा था । अर्जुन, दिव्य और अमोघ शस्त्रास्त्रों की प्रप्ति के लिये इन्द्रनील नाम के पर्वत पर भगवान शंकर की तपस्या कर रहे थे । वे भगवान सदाशिव के पंचाक्षर मंत्र का जप करते हुए अपनी तपस्या में सन्नद्ध थे । उनकी घोर तपस्या तथा अपना हितकारी उददेश्य देख कर देवताओं ने भगवान शंकर से उन्हें वर देने की प्रार्थना की । उधर जब दुर्योधन को अर्जुन की तपस्या की बात ज्ञात हुई, तो उस दुरात्मा ने अपने मित्र, मूक नामक एक मायावी राक्षस को उनका वध करने के लिये भेजा । मूक स्वभावतः दुष्ट प्रकृति का था | और उसने अपने उद्योग से कई सारी भीषण शक्तियां अर्जित कर ली थीं | दुर्योधन के आग्रह पर वह दुष्ट असुर, एक विशालकाय शूकर (सूअर) का वेश धारण कर अर्जुन के समीप पहुंचा और वहां के पर्वत शिखरों और वृक्षों को ढहाने लगा । उसकी भयंकर गुर्राहट से दसों दिशाएं गूंज रही थीं । मानो पूरे वातावरण में एक भूचाल सा आया हो | यह देख कर भक्त हितकारी भगवान शंकर, अपने अनुसन्धान में रत अर्जुन की रक्षा के लिए, किरात वेश धारण कर प्रकट हुए । शूकर को अपनी ओर आते देख, उसकी मंशा समझते हुए, अर्जुन ने उस पर अपना बाण चलाया, लेकिन ठीक उसी समय किरात वेशधारी भगवान शंकर ने भी अपने भक्त अर्जुन की रक्षा हेतु उस शूकर रूपधारी दानव मूक पर अपना बाण चलाया । महाकाल की लीला से दोनों बाण एक ही साथ उस शूकर के शरीर में प्रविष्ट हो गये और वह वहीं गिरकर मर गया । उसका प्राणान्त हो चुका था | उसे मारकर अर्जुन ने अपने आराध्य भगवान शंकर का ध्यान किया और अपने बाण को उठाने के लिये उस शूकर के पास पहुंचे । इतने में ही किरात वेशधारी शिव जी का एक गण भी वनेचर के रूप में बाण लेने के लिये आ पहुंचा और अर्जुन को बाण उठाने से रोक कर कहने लगा कि यह मेरे स्वामी का बाण है, जिसे उन्होंने तुम्हारी रक्षा के लिये चलाया था, परंतु तुम तो इतने निर्लज्ज हो कि उपकार मानने की बजाय उनके बाण को ही चुराये लिए जा रहे हो । यदि तुम्हे अस्त्रों की ही आवश्यकता है तो मेरे स्वामी से मांग सकते हो, वे बहुत बड़े दानी हैं, ऐसे बहुत से बाण तुम्हे दे सकते हैं । अर्जुन को बात चुभ गयी लेकिन शांत भाव से उन्होंने उससे कहा “यह मेरा बाण है, इस पर मेरा नाम भी अंकित है । इस बाण को मैं तुम्हे ले जाने देकर अपने कुल की कीर्ति में दाग नहीं लगवा सकता । भगवान शंकर की कृपा से मैं स्वयं अपनी रक्षा करने में समर्थ हूं । अगर तुम्हारे स्वामी में बल है तो वे आकर मुझसे युद्ध करें और इसे सिद्ध करें । उस दूत ने एक हिकारत भरी दृष्टी अर्जुन पर डाली और अर्जुन की कही हुई सारी बातें जाकर अपने स्वामी से विशेष रूप से निवेदन कर दीं, जिसे सुन कर किरात वेशधारी भगवान शिव अपने भीलरूपी गणों की महान सेना लेकर अर्जुन के सम्मुख आ गये । उन्हें युद्ध की मंशा से आया हुआ देख कर अर्जुन ने भगवान शिव का ध्यान कर अत्यन्त भीषण संग्राम छेड़ दिया । उस घोर युद्ध में अर्जुन ने शिव जी का ध्यान किया, भगवान् शिव के आशीर्वाद स्वरुप अर्जुन का बल बढ़ गया । इसके बाद उन्होंने किरात वेशधारी शिव के दोनों पैर पकड़ कर उन्हें हवा में घुमाना शुरू कर दिया । लीला स्वरूपधारी लीलामय भगवान शिव भक्त पराधीन होने के कारण हंसते रहे । तत्पश्चात उन्होंने अपना वह सौम्य एवं अदभुत रूप प्रकट किया, जिसका अर्जुन चिंतन करते थे । किरात के उस सुंदर रूप को देख कर अर्जुन स्तब्ध रह गए | अर्जुन लज्जित होकर पश्चाताप करने लगे । उन्होंने मस्तक झुकाकर भगवान शिव को प्रणाम किया और खिन्न मन हो कर अपने आप को धिक्कारने लगे । अर्जुन को पश्चाताप करते देख कर भक्त वत्सल भगवान महेश्वर का चित्त प्रसन्न हो गया । उन्होंने कहा “पार्थ ! तुम तो मेरे परम भक्त हो, यह तो मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने के लिये ऐसी लीला रची थी” । उन्होंने प्रेमपूर्वक अर्जुन का आलिंगन किया और बोले “है पाण्डव श्रेष्ठ ! मैं तुम्हारी वीरता और सौम्यता से परम प्रसन्न हूँ, तुम वर मांगो” । यह सुनकर प्रसन्न मन अर्जुन ने अपने आराध्य भगवान शिव की वेदसम्मत स्तुति की और भगवान शिव के पुनः ‘वर मांगो’ कहने पर नत मस्तक हो उन्हें प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक गदगद वाणी में कहा “हे विभो ! मेरे संकट तो आपके दर्शन से ही दूर हो गये हैं, अब जिस प्रकार मुझे परासिद्धि प्राप्त हो सके, वैसी कृपा कीजिये । पाण्डु पुत्र अर्जुन में अपनी अनन्य भक्ति देख कर भगवान महेश्वर ने उन्हें अपना पाशुपत नामक महान अस्त्र प्रदान किया और समस्त शत्रुओं पर विजय-लाभ पाने का आशीर्वाद दिया । भगवान् शिव का पाशुपतास्त्र अमोघ था | ब्रह्माण्ड के किसी और अस्त्र से इसकी तुलना ही नहीं हो सकती थी | इस अस्त्र की संहारक क्षमता का सही-सही वर्णन किसी भी ग्रन्थ में नहीं दिया हुआ है | भगवान् शिव के अलावा इसे और कोई चला भी नहीं सकता था | भगवान् शिव ने अर्जुन को दीक्षित करते हुए इस अस्त्र के संधान में पारंगत किया | इस प्रकार लीलामय परम कौतुकी भगवान शंकर के किरात अवतार की यह कथा है, जो सुनने अथवा सुनाने से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति करने वाली है। कहानी आप को पसंद आई हो तो चैनल को सब्सक्राइब करें। वीडियो को लाइक करें। वीडियो को अंत तक देखने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। Thanks For Watching ☺️