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अभ्यास के बिना शास्त्र विष होता है, अजीर्ण अर्थात भोजन के ठीक प्रकार से पचे बिना फिर भोजन करना विष के समान होता है, निर्धन और दरिद्र व्यक्ति के लिए समाज में रहना विष के समान होता है और बूढ़े पुरुष के लिए युवती विष के समान होती है। मनुष्यों को निरंतर अभ्यास द्वारा शास्त्र का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। यदि वह शास्त्र ज्ञान के लिए निरंतर अभ्यास नहीं करता तो वह अधकचरा ज्ञानी बनता है, ऐसा ज्ञान विष के समान दुखदायी होता है। इसी प्रकार पेट में अपच की स्थिति में यदि बढ़िया-से-बढ़िया भोजन किया जाएगा तो वह भी विष के समान कष्ट देगा। दरिद्र यदि किसी सभा, सोसायटी पता ज में जाता है तो वहां उसकी पूछ न होने के कारण उसे विष का घूटं भी पीना पड़ता है। बूढ़ा आदमी यदि तरुणी के साथ विवाह रचाता है तो उसका जीवन अत्यन्त कष्टमय हो जाता है, क्योंकि विचारों में आयुगत असमानता सदैव क्लेश का कारण बनती है और शारीरिक रूप से निर्बल होने के कारण वह नवयौवना को यौन संतुष्टि भी प्रदान नहीं कर सकता। ऐसी पत्नी पथग्रष्ट हो सकती है, जो कि सम्मानित व्यक्ति के लिए अत्यंत कष्टदायी स्थिति होती है। व्यक्ति को चाहिए कि वह ऐसे धर्म का त्याग कर दे जिसमें दया और ममता आदि का अभाव हो, इसी प्रकार विद्या से हीन गुरु का भी त्याग कर देना चाहिए। सदा क्रोध करने वाली स्त्री का त्याग भी श्रेयस्कर है और जिन बन्धु-बान्धवों में प्रेम अथवा स्नेह का अभाव हो, उनका भी त्याग कर देना चाहिए। प्रत्येक धर्म से आशा की जा सकती है कि वह दया, अहिंसा और प्रेम का संदेश देगा। यदि उसमें ये बातें नहीं हैं तो ऐसे धर्म को छोड़ देना चाहिए। गुरु का कर्तव्य ज्ञान देना है, यदि वह अनपढ़ और मूर्ख है तो उसे गुरु बनाने से कोई लाभ नहीं। स्त्री पति को सुख देने वाली होती है, परंतु यदि वह हर समय गुस्से में भरी रहे और क्रोध करती रहे तो ऐसी पत्नी का भी त्याग कर देना चाहिए। रिश्तेदार, भाई-बन्धु व्यक्ति के दुख में काम आते हैं, परंतु यदि उनमें स्नेह और प्रेम का अभाव है तो ऐसे भाई-बंधुओं का कोई लाभ नहीं। उन्हें त्यागना ही हितकर है। जो मनुष्य अधिक पैदल चलता अथवा यात्रा में रहता है, वह जल्दी बूढ़ा हो जाता है। यदि घोड़ों को हर समय बांधकर रखा जाएगा तो वे भी जल्दी बूढ़े हो जाते हैं। स्त्रियों से यदि संभोग न किया जाए तो वे जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं। इसी प्रकार मनुष्य के कपड़े धूप के कारण जल्दी फट जाते हैं अर्थात धूप उन्हें जल्दी बूढ़ा कर देती है। जो लोग हमेशा यात्रा में रहते हैं, वे नियमित न रहने के कारण जल्दी बुढ़ापे का शिकार हो जाते हैं। यात्रा की थकान और खान-पान की गड़बड़ी का तन-मन पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। जिस घोड़े को हर समय बांधकर रखा जाता है वह भी जल्दी बूढ़ा हो जाता है। ऐसा करना उसकी शारीरिक प्रकृति के प्रतिकूल है। यह तो मनुष्य ने उसे पालतू बना लिया, असल में तो यह स्वच्छंद विचरण करने वाला प्राणी है। स्त्रियों के बारे में आचार्य ने यहां जो कहा, वह पढ़ने में अटपटा लगेगा, लेकिन है सत्य। शारीरिक रचना की दृष्टि से देखें, तो “संभोग” स्त्री के शरीर की जैविक आवश्यकता ज्यादा है, मनोवैज्ञानिक कम--जब तक वह मासिक चक्र में है। और फिर ऐसा होना उसके अपने पति से संबंधों के ठीक न होने की ओर भी संकेत करते हैं। इस बात को प्रत्येक बुद्धिमान व्यक्ति स्वीकार करता है कि यदि मन के स्तर पर असंतोष होगा तो बुढ़ापा आएगा ही। कपड़े ज्यादा देर तक धूप में पड़े रहने पर जल्दी फट जाते हैं क्योंकि मिट्टी और सूर्य की तपिश कपड़े के बारीक तंतुओं को जला देती है। समझदार व्यक्ति को चाहिए कि इन बातों के संबंध में सदैव सोचता रहे जैसे कि मेरा समय कैसा है? मेरे मित्र कितने हैं? मैं जिस स्थान पर रहता हूं, वह कैसा है? मेरी आय और व्यय कितना है? मैं कौन हूं? मेरी शक्ति क्या है अर्थात मैं क्या करने में समर्थ हूं? जन्म देने वाला, यज्ञोपवीत कराने वाला गुरु, विद्या दान देने वाला अध्यापक, अन्न देने वाला और भय से मुक्त रखने वाला, यह पांच व्यक्ति पितर माने गए हैं। चाणक्य का मत है कि इन पांचों को सदैव संतुष्ट रखना चाहिए, तथा इनका पिता की राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माता अर्थात सास और जन्म देने वाली अपनी माता, ये पांच माताएं मानी गई हैं, अर्थात्‌ इनका सम्मान माता के समान करना चाहिए। न्याय करते समय भी इन संबंधों को “मां' की परिभाषा में ही स्वीकार किया जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विजाति कहा गया है, इनका देवता यज्ञ है। मुनियों का देवता उनके हृदय में निवास करता है। मंद बुद्धि वालों के लिए मूर्ति ही देवता होती है। जो व्यक्ति समदर्शी हैं, जिनकी समान दृष्टि है, वे परमेश्वर को सर्वत्र विद्यमान मानते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को द्विजाति इसलिए माना जाता है कि जन्म के बाद गुरु उनका उपनयन संस्कार करता है। उनके लिए यज्ञ ही उनका देवता है। मुनियों के हृदय में देवताओं का निवास होता है क्योंकि वह सदैव उनका मनन-चिंतन करते रहते हैं। मूर्ति पूजा को यहां साधना के प्रारंभिक चरण के लिए आवश्यक माना गया है--जैसे वर्णमाला के माध्यम से फल-फूल आदि का ज्ञान विद्यार्थी को कराया जाता है। जो संसार का रहस्य जानते हैं, उनके लिए ईश्वर सर्वव्यापक है। वे संसार के कण-कण में उसे देखते हैं। चाणक्य का कहना है कि जीव जब गर्भ में होता है, तभी उसकी आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु आदि बातें निश्चित हो जाती हैं अर्थात मनुष्य जन्म के साथ ही निश्चित कर्मों के बन्धनों में बंध जाता है। इस संसार में आने के बाद सज्जनों के संसर्ग के फलस्वरूप व्यक्ति सांसारिक बंधनों से मुक्त होता है। अच्छे लोगों का साथ हर तरह से मनुष्य की रक्षा के लिए ही होता है। मनुष्य जब तक जीवित है, तब तक उसे पुण्य कार्य करने चाहिए, क्योंकि इसी से उसका कल्याण होता है और जब मनुष्य देह त्याग देता है तो वह कुछ भी नहीं कर सकता। विद्या को चाणक्य ने कामधेनु के समान बताया है। जिस तरह कामधेनु से सभी इच्छाएं पूरी हो जाती हैं, उसी प्रकार विद्या से मनुष्य अपनी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है। विद्या को बुद्धिमानों ने गुप्त धन भी कहा है। मूर्ख पुत्रों की अपेक्षा एक गुणी पुत्र अधिक हितकर होता है। उनका कहना है कि मूर्ख पुत्र यदि दीर्घ आयु वाला होता है तो वह आयुभर कष्ट देता रहता है, इससे तो अच्छा है कि वह जन्म के समय ही मर जाए, क्योंकि ऐसे पुत्र की मृत्यु से दुख थोड़ी देर के लिए होगा। उनका कहना है कि इस संसार में दुखी लोगों को अच्छे पुत्र, पतिव्रता स्त्री और सज्जनों से ही शांति प्राप्त होती है। सांसारिक नियमों के अनुसार चाणक्य बताते हैं कि राजा एक ही बात को बार-बार नहीं कहते, पण्डित लोग भी (मंत्रों को) बातें बार-बार नहीं दोहराते और कन्या का भी एक ही बार दान किया जाता है। इसलिए इन कर्मों को करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए। चाणक्य कहते हैं कि उसी पत्नी का भरण-पोषण करना चाहिए जो पतिपरायणा हो। जिस मनुष्य के घर में कोई संतान नहीं, वह घर सूना होता है। जिसके कोई रिश्तेदार और बन्धु-बान्धव नहीं, उसके लिए यह संसार ही सूना है। दरिद्र अथवा निर्धन के लिए तो सब कुछ सूना है। विद्या की प्राप्ति के लिए अभ्यास करना पड़ता है, बिना अभ्यास के विद्या विष के समान होती है। जिस प्रकार अपच के समय ग्रहण किया हुआ भोजन विषतुल्य होता है और निर्धन व्यक्ति के लिए सज्जनों की सभा में बैठना मुश्किल होता है, उसी प्रकार बूढ़े व्यक्ति के लिए स्त्री संसर्ग विष के समान होता है। धर्म उसे कहते हैं, जिसमें दया आदि गुण हों। गुरु उसे कहते हैं जो विद्वान हो। पत्नी वह होती है, जो मधुरभाषिणी हो, बन्धु-बान्धव वह होते हैं, जो प्रेम करें, परंतु यदि इनमें यह बातें न हों अर्थात धर्म दया से हीन हो, गुरु मूर्ख हो, पत्नी क्रोधी स्वभाव की हो और रिश्तेदार बंधु- बांधव प्रेमरहित हों, तो उन्हें त्याग देना चाहिए। अधिक यात्राएं करने से मनुष्य जल्दी बूढ़ा होता है। स्त्रियों की कामतुष्टि न हो तो वे जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं और कपड़े यदि अधिक देर तक धूप में पड़े रहें तो जल्दी फट जाते हैं। मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए चिंतन करते रहना चाहिए कि समय किस प्रकार का चल रहा है? मित्र कौन हैं और कितने हैं? कितनी शक्ति है? बारबार किया गया ऐसा चिंतन मनुष्य को उन्नति के मार्ग पर ले जाता है। इस अध्याय के अंत में आचार्य चाणक्य कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि का देवता अग्नि अर्थात अग्निहोत्र है। ऋषि-मुनियों का देवता उनके हृदय में रहता है, अल्पबुद्धि लोग मूर्ति को अपना देवता मानते हैं और जो सारे संसार के प्राणियों को एक जैसा मानते हैं उनका देवता सर्वव्यापक और सर्वरूप ईश्वर है। एफ क कमचुरता से राजा की और अच्छी स्त्रियों से घर की रक्षा होसेबमकी, योग से विद्या की, ती है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि द्विजों के लिए अग्निहोत्र गुरु के समान आदरणीय है, चारों वर्णों में ब्राह्यण सबसे अधिक श्रेष्ठ और आदरणीय है। स्त्रियों के लिए पति ही गुरु है और घर में आया हुआ अतिथि सभी के आदर-सत्कार के योग्य माना गया है। द्विजों का कर्तव्य है कि वे अग्निहोत्र आदि कर्म आदरपूर्वक नित्य करते रहें। अन्निहोत्र से वायुमंडल शुद्ध होता है। मनुष्य के स्वास्थ्य और पर्यावरण के सुधार के लिए हवन, यज्ञ आदि करना आवश्यक माना गया है। ब्राह्मण को पूजनीय इसलिए माना गया है क्योंकि वे सभी वर्णों को विद्या देते हैं। स्त्रियों के लिए पति ही उसका आदरणीय गुरु होता है, क्योंकि वही उसका भरण-पोषण करता है और उसे सन्मार्ग पर ले जाने में सहायता करता है। घर में आए हुए अतिथि का आदर-सत्कार सभी लोगों को करना चाहिए क्योंकि वह बहुत थोड़ी देर के लिए किसी के घर आता है। “अतिथि देवो भव', ऐसा शास्त्र वचन भी है। जिस प्रकार सोने की परीक्षा चार प्रकार से की जाती है--उसे कसौटी पर घिसा जाता है, काटकर देखा जाता है, तपाया जाता है और कूटकर उसकी जांच की जाती है, उसी प्रकार मनुष्य कितना श्रेष्ठ है इसकी पहचान भी इन चार बातों से होती है। चाणक्य के अनुसार, इन चारों प्रकारों से की गई परीक्षा में स्वयं को सही सिद्ध करने वाला व्यक्ति ही खरा” है। उसकी सज्जनता, उसका चरित्र, उसके गुण और उसका आचार- व्यवहार उसके खरेपन की पुष्टि करते हैं। संकट प्रत्येक मनुष्य पर आते हैं, परंतु बुद्धिमान व्यक्तियों को संकटों और आपत्तियों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे सिर पर न आ जाएं। संकट और दुख आने पर तो व्यक्ति को अपनी पूरी शक्ति से उन्हें दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। एक ही माता के पेट और एक ही नक्षत्र में उत्पन्न हुए बालक गुण, कर्म और स्वभाव में एक समान नहीं होते, जैसे बेर--वृक्ष के सभी फल और उनके कांटे एक जैसे नहीं होते, उनमें अंतर होता है। चाणक्य ने बेर और कांटों की उपमा एक विशेष विचार से दी है। एक ही बेर के वृक्ष पर लगे हुए सभी फल मीठे नहीं होते। बेर वृक्ष पर कांटे भी होते हैं, परंतु वह कांटे भी एक जैसे कठोर नहीं होते। इसी प्रकार यह आवश्यक नहीं कि एक ही माता-पिता के और एक ही नक्षत्र में पैदा होने वाले बच्चों के गुण, कर्म और स्वभाव एक जैसे हों। उनका भाग्य तथा उनकी रुचियां एक जैसी नहीं होतीं। माता-पिता के एक होने पर भी प्रारब्ध और परिस्थितियों का अंतर तो होता ही है। कोई भी अधिकारी लोभरहित नहीं होता, शंगार प्रेमी में कामवासना की अधिकता होती ही है। जो व्यक्ति चतुर नहीं है, वह मधुरभाषी भी नहीं हो सकता तथा साफ बात कहने वाला व्यक्ति कभी भी धोखेबाज नहीं होता।